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गुमनाम पराक्रम की गाथा: पीपा क्षत्रिय राजपूतों की अमर निष्ठा (चित्तौड़ से कुंभलगढ़ तक)

गुमनाम पराक्रम की गाथा – पीपा क्षत्रिय राजपूतों की अमर निष्ठा

(चित्तौड़ से कुंभलगढ़ तक, और बनवीर से न्याय तक)
इतिहास की सबसे करुण और वीर गाथाओं में से एक है –
वो समय जब चित्तौड़ दुर्ग के भीतर विश्वासघात जन्म ले रहा था, और सत्ता की लालसा में बनवीर ने बालक महाराणा उदयसिंह की हत्या का षड्यंत्र रचा।
यह कोई विदेशी हमला नहीं था –
यह विश्वासघात अपने ही कुल के भीतर से था।
एक मासूम बालक को मारकर सत्ता हथियाने की घिनौनी साजिश!

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 तब जागी राजनिष्ठा – गुमनाम लेकिन महान
जब अन्य चुप थे, तब एक मातृत्व की मूरत पन्ना धाय आगे आईं।
लेकिन क्या यह कार्य अकेले उनका था?
नहीं!
उनके साथ खड़े थे पीपा क्षत्रिय राजपूत योद्धा,
जो उस समय गुमनाम रहे, लेकिन जिनकी तलवारें, निष्ठा और चतुराई ने इतिहास की दिशा मोड़ दी।
उन्होंने पन्ना धाय का साथ देकर बालक राणा को महलों से निकालकर
हर खतरे, हर पहरे और हर घात से जूझते हुए
कुंभलगढ़ दुर्ग की शरण तक सुरक्षित पहुँचाया।
यह कोई साधारण सुरक्षा यात्रा नहीं थी –
यह आत्मबलिदान, राजभक्ति और स्वाभिमान की ज्वाला थी।

छापामार युद्ध के महारथी – हर एक, सौ पर भारी
जब बनवीर सत्ता पर बैठा और अन्याय का शासन शुरू हुआ,
तब यही गुमनाम पीपा क्षत्रिय योद्धा
जंगलों, पर्वतों और किलों से निकलकर
छापामार युद्ध के महारथी बने।
बिना नाम, बिना स्वार्थ,
बस एक उद्देश्य: धर्म और वंश की रक्षा।
इतिहास गवाही देता है कि —

एक-एक पीपा क्षत्रिय योद्धा, सौ-सौ शत्रुओं पर भारी था।
इनकी छाया मात्र से बनवीर की सेना भयभीत होती थी।

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 बनवीर का अंत – धर्म की पुनर्स्थापना
जब समय आया,
तो इन्हीं गुमनाम पराक्रमी योद्धाओं ने बनवीर की सत्ता को चुनौती दी।
बनवीर को परास्त कर, बालक राणा को न्यायपूर्ण राजसिंहासन दिलाया गया।
यह युद्ध तलवारों का नहीं –
यह न्याय, प्रतिज्ञा और निष्ठा का युद्ध था।

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समाज के लिए संदेश:

आज ज़रूरत है उसी चेतना को फिर से जगाने की।
जिनका इतिहास में नाम नहीं, उनका कर्म इतिहास से बड़ा था।
गुमनाम रहें, लेकिन समाज की रीढ़ बने रहे।
अब वो चेतना फिर से जगे — संगठन, स्वाभिमान और जागरूकता में।

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 जय संत पीपा जी | जय माता सीता | जय पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज 


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संत पीपा जी और पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज